आज कई बुद्धिजीवियो द्वारा यह सन्देश दिया जा रहा कि उत्तराखंड से पलायन बढ़
रहा है जो कि 16 वर्षीय राज्य की नाकामी के कारण हो रहा है। और संभवतः उन बुद्धिजीवियो की संख्या में पलायन कर चुके बुद्धिजीवी ही अधिक है। और यह बुद्धिजीवियो का वर्ग उस गरीब वर्ग से नहीं आता जो गरीब कुछ सालों
पहले अपने परिवार के भरण पोषण को दिल्ली,लखनऊ,पंजाब,हरियाणा,मुबई को शरण लिया करता था। आज का पलायन उस मध्यम वर्ग का पलायन है जिसके पास अच्छा खासा पैसा है जो कि
आराम से अपने गांव में अपने परिवार का भरण पोषण कर सकता है। लेकिन वह किसी
भी प्रकार से कमाए धन को अपना गाँव छोड़कर ठिकाने लगा देता है और रूपया पैसा
समाप्त होने पर सारा ठीकरा सरकार पर फोड़ देता है कि सरकार ने अगर ध्यान
दिया होता तो हम पलायन को मजबूर ना होते।
आज प्रतीत होता है कि रूपया कमाने की अंधी दौड और आराम तलब होने में ही पलायन बढ़ रहा है। अगर ऐसा ना होता तो क्यों सुदूर पर्वतीय आंचलों में रहने वाला व्यक्ति अपने ब्लॉक,तहसील,जिलामुख्यलाय में जमीन तलासता है? क्यों तहसील जिलामुख्यलय में रहनेवाला नगर शहर या राजधानी क्षेत्र में जाता
है और नगर राजधानी या शहरों में रहनेवाला व्यक्ति बड़े शहरों और महानगरों
में जाता है। और जो देश के बड़े शहरो में रहता है वह विदेश जाने को लालायित रहता है। तो फिर ऐसे में पलायन करनेवालो की बात में कोई दम नहीं दिखता। कितने लोग है जो सामंजस्य बैठाकर या मेहनत करके पहाड़ों की इस विषम भौगोलिक परिस्थितियों को अपने अपने अनुकूल बनाने की सोचते हैं?
कितने लोग इनसभी समस्याओ से लड़कर जीने की इच्छाशक्ति रखते है? क्या गाँव के इन प्राइमरी स्कूलो और इंटर कॉलेजो से पढ़कर युवा आगे नहीं बढ़ा है? क्या सभी नौकरीपेशा लोग प्राइवेट शिक्षण संस्थानों से ही आगे बढे है? आज के दौर में कमी आई है तो समाज की कर्तव्यपरायणता में कमी आई है तो मेहनत में
मेरी समझ में इस शौक की अंधी दौड़ ने ही पलायन को बढ़ावा दिया है। और रही सही कसर पूरी की है उन भाइयों ने जो सरकार के आगे खड़े होकर किसी भी कीमत में नौकरी पाना चाहते है और चाहे अपनी योग्यता के आधार पर या किसी जुगाड़बाजी से नौकरी तो पा लेते है फिर नौकरी लगने के बाद अपने दायित्वों का निर्वहन करने में अक्षम या कामचोर हो जाते है। जो कि इन पहाड़ो के ही बेटा बेटियां होने पर भी पहाड़ो में सेवा देने से घबराते है चाहे उस श्रेणी में हमारे डॉक्टर,शिक्षक,शासन में किसी भी पद पर बैठे नौकरशाह हो बहुत से तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता,कई राजनेता ये सभी अपने दायित्वों का निर्वहन ना कर पलायन को बढ़ावा दे रहे।
कितने लोग इनसभी समस्याओ से लड़कर जीने की इच्छाशक्ति रखते है? क्या गाँव के इन प्राइमरी स्कूलो और इंटर कॉलेजो से पढ़कर युवा आगे नहीं बढ़ा है? क्या सभी नौकरीपेशा लोग प्राइवेट शिक्षण संस्थानों से ही आगे बढे है? आज के दौर में कमी आई है तो समाज की कर्तव्यपरायणता में कमी आई है तो मेहनत में
मेरी समझ में इस शौक की अंधी दौड़ ने ही पलायन को बढ़ावा दिया है। और रही सही कसर पूरी की है उन भाइयों ने जो सरकार के आगे खड़े होकर किसी भी कीमत में नौकरी पाना चाहते है और चाहे अपनी योग्यता के आधार पर या किसी जुगाड़बाजी से नौकरी तो पा लेते है फिर नौकरी लगने के बाद अपने दायित्वों का निर्वहन करने में अक्षम या कामचोर हो जाते है। जो कि इन पहाड़ो के ही बेटा बेटियां होने पर भी पहाड़ो में सेवा देने से घबराते है चाहे उस श्रेणी में हमारे डॉक्टर,शिक्षक,शासन में किसी भी पद पर बैठे नौकरशाह हो बहुत से तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता,कई राजनेता ये सभी अपने दायित्वों का निर्वहन ना कर पलायन को बढ़ावा दे रहे।
(गिरीश चन्दोला, हल्द्वानी )
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